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गंगा नदी का पारिस्थितिकी तंत्र

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गंगा नदी का पारिस्थितिकी तंत्र

  • पारिस्थिकीय तंत्र (Ecosystem) या एक विशेष जैविक एवं अजैविक पहचान का भूदृश्य होता है । पारितंत्र को स्थलीय एवं जलीय तंत्रों में विभाजित किया जा सकता है । ये तंत्र पृथ्वी पर जीवन के निवास की प्रमुख दशाएँ प्रस्तुत करते हैं । प्रत्येक पारितंत्र के जैविक एवं अजैविक घटकों में गहरा पारस्परिक सम्बन्ध होता है । स्थलीय पारितंत्र में वन, चरागाह, रेगिस्तान, पर्वत, द्वीप आदि तथा जलीय पारितंत्र में तालाब, झील, दलदल, नदी, डेल्टा एवं महासागरों को सम्मिलित किया जाता है। प्रत्येक पारितंत्र में कुछ बुनियादी तत्वों जैसे पारितंत्र की प्रकृति, संरचना, कार्य प्रणाली, उपयोग, पारितंत्र का ह्रास, ह्रास के बचाव कार्य एवं संरक्षण को प्रमुखता दी जाती है । जलीय संरक्षण से मानव को जैविक एवं अजैविक संसाधनों की प्राप्ति होती है। ये संसाधन मानव विकास में सहायक होते हैं । जलीय संसाधनों के दुरूपयोग से मानव को कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। जल के अति उपयोग के कारण पीने के पानी की गम्भीर समस्या पैदा हो रही है। रासायनिक खादों, उर्वरकों, बढ़ती जनसंख्या, प्रदूषण, अपशिष्ट पदार्थों का जल में मिलने से कई प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न हो गई है। ये प्रदूषित जल जलीय जीवन एवं मानव दोनों के लिए खतरनाक है ।
  • जलीय पारितंत्र को स्थिर एवं प्रवाहमान तथा खारे एवं ताजे या मीठे जल में विभाजित किया जा सकता है। नदियों के पारितंत्र को ताजे या मीठे एवं प्रवाहमान जल की श्रेणी में रखा जाता है। इसमें कई प्रकार की वनस्पति एवं जीव-जन्तु पाये जाते हैं । विश्व की सभी सभ्यताओं का जन्म बहती ताजे पानी की नदी घाटियों में हुआ है । ये मानव सभ्यता के पालने’ माने जाते हैं। इसलिए सभी सभ्यताओं में स्वच्छ पानी की नदियाँ को ‘माँ’ का द्योतक माना गया है। भारत में सदियों से नदी घाटियों पर मानव निवास कर रहा है। विश्व की प्राचीनतम मानव सभ्यता भारत वर्ष की सिन्धु, सरस्वती एवं संबंधित नदियों की घाटियों में जमी है। भारतवर्ष के उत्तर का उपजाऊ मैदान सिन्धु, सरस्वती, यमुना, गंगा, ब्रह्मपुत्र एवं उनकी सहायक नदियों द्वारा निर्मित हैं इस उपजाऊ मैदान में विश्व जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग निवास करता है ।
गंगा नदी का पारिस्थितिकी तंत्र

गंगा नदी का पारिस्थितिकी तंत्र

गंगा नदी का पारितंत्र


1. पर्वतीय क्षेत्र –

  • गंगा भारत की राष्ट्रीय एवं सबसे पवित्र मानी जाती है। इस नदी पर सदियों से आर्य भारतवासी निवास करते रहे हैं। गंगा नदी ने राम, कृष्ण, गौतम, महावीर, नानक आदि अवतारों को अपने आँचल में पाला है । इसलिए यह पवित्र नदी पाप मुक्त कर स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त करती है। गंगा नदी का आरम्भ भागीरथी एवं अलकनन्दा के रूप में होता है । इस नदी के उदगम स्थल की औसत समुद्र तट से औसत ऊँचाई 3140 मीटर है। गंगा नदी की प्रधान शाखा भागीरथी है जो कुमायूँ हिमालय के गोमुख स्थान से गंगोत्री हिमनद से निकलती है। इसका अवतरण एक छोटे से गुफानुमा मुख से होता है जिसका जल स्त्रोत 5000 मीटर ऊँचाई पर स्थित एक है । गंगा नदी के आकार लेने में अनेक छोटी-बड़ी सहायक नदियों (धाराओं) का महत्वपूर्ण स्थान है । देव प्रयाग में संगम कर सम्मिलित जल धाराएँ गंगा नदी के रूप में बनती है। लगभग 200 कि.मी. का संकीर्ण पहाड़ी रास्ता ( शिवालिक हिमालय) तय करते हुए गंगा नदी ऋषिकेश होते हुए प्रथम बार हरिद्वार में मैदान को स्पर्श करती है। इस यात्रा में नदी तीव्र मोड़ों से होती हुई, गहरी घाटियों का निर्माण करती है। कई स्थानों पर 600 मीटर से अधिक गहरी घाटियाँ पायी जाती है। दोनों किनारों पर बड़ी-बड़ी चट्टानें, गोलाश्म, कंकड़-पत्थर और रेत भारी मात्रा में जमे होते हैं। दोनों तरफ के ढाल बहुत तीव्र होते हैं
गंगा नदी का पारिस्थितिकी तंत्र


2. ऊपरी मैदानी क्षेत्र इस क्षेत्र में जैव विविधता तथा सांस्कृतिक-

  • आध्यात्म रूपी पहलू बहुत महत्व रखते हैं। इस क्षेत्र में ‘महाशीर ‘ ( Tor) प्रजाति की मछलियाँ पायी जाती है तथा शिवपुरी के आस-पास का क्षेत्र विपुल जैव विविधता रखता है। गढ़मुक्तेश्वर क्षेत्र में रेत के टीले, बाढ़ मैदान एवं गौखुर झीलों का निर्माण होता है। इन क्षेत्रों में डॉलफिन (सूँस), घड़ियाल एवं कछुए पाये जाते हैं । यह ‘रामसर’ स्थल कहलाता है । फरूखाबाद पहुँचने पर गंगा नदी में मलबा बढ़ता जाता है। बाढ़ के मैदानों का स्वरूप बहुत चौड़ा हो जाता है। इन क्षेत्रों में कृषि, मत्स्य व्यवसाय, पशु पालन एवं मानव जनसंख्या तथा अधिवासों की संख्या बढ़ जाती है। नदी घाटों पर स्नान एवं अन्तिम संस्कार रूपी धार्मिक कर्म-काण्ड बढ़ जाते हैं। इससे नदी में प्रदूषण बढ़ने लगता है। विभिन्न प्रजातियों के पक्षी, कीट-पतंगों, रेंगने वाले जीवों की संख्या अधिक पायी जाती है ।
  • बिठुर से कानपुर तक का क्षेत्र गंगा को अत्यधिक प्रदूषित करता है । विशेष रूप से कानपुर के चमड़ा उद्योग ने इस नदी को बहुत प्रदूषित किया है। नदी के दोनों तरफ बसे नगरों द्वारा छोड़ा जाने वाला मलमूत्र नदी की पवित्रता को गहराई से प्रभावित करता है। यहाँ प्लवक ( प्लैंकटन) तथा नितलस्थलीय अकेशरुकी जीवों की मात्रा नदी में अधिक पायी जाती है । ये बहुत संवेदनशील होते हैं जो मानवीय क्रियाकलापों जैसे स्नान, धार्मिक क्रियाओं तथा नौकावाहन से बहुत प्रभावित होते हैं । इस क्षेत्र में विभिन्न प्रजातियों के पक्षी, कीट-पतंगे, मछलियाँ, कछुए आदि पाये जाते हैं। कृषि एवं पशुपालन प्रमुख व्यवसाय है । यह पुरातात्विक एवं धार्मिक महत्व वाला स्थल है । बिदुर में एक प्राचीन ब्रह्मा जी का मन्दिर विशेष महत्व रखता है। इस क्षेत्र में मिएण्डर (नदी विसर्प), बाढ़ के मैदान, गौखुर झीलें आदि स्थलरूप पाये जाते हैं । ये ‘खादर’ और ‘भांगर’ विशिष्टि स्थलाकृतियों वाले प्रदेश हैं । दोआब एवं तराई पेटियों में घने वन पाये जाते हैं तथा दलदली क्षेत्र प्रधान है। इस क्षेत्र की गोमती एवं घाघरा प्रमुख नदियाँ हैं ।

3. मध्य गंगा मैदान –

  • मध्य गंगा मैदान में पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं बिहार राज्य के क्षेत्र आते हैं। ये जनसंख्या की दृष्टि से घने बसे क्षेत्र हैं। यहाँ के निवासियों के प्रमुख व्यवसाय कृषि, पशुपालन, मत्स्य व्यवसाय तथा इन पर आधारित कुटीर उद्योग हैं। इस क्षेत्र में घाघरा, गण्डक, कोसी एवं सोन आदि प्रमुख सहायक नदियाँ है । यहाँ गंगा की गति मन्द हो जाती है तथा रेत, मिट्टी, कचरा, मलमूत्र, रसायन आदि मिलने से प्रदूषण बहुत बढ़ जाता है। इन क्षेत्रों में भी मिएण्डर (नदी विसर्प), कांप, मिट्टी के मैदान, गौखुर झीलें आदि स्थलरूपों का निर्माण होता है। प्रदूषण अधिक हो जाने से नदी का जल नहाने एवं पीने योग्य भी नहीं रहता । कोसी नदी में बाढ़ आने से जनधन का बहुत नुकसान होता है। शार्क, डॉलफिन, कछुए, मगरमच्छ, ऐलिगेटर (घड़ियाल), मछलियाँ आदि नदी के प्रमुख जीव हैं। बिहार का ‘विक्रम शिला डॉलफिन अभ्यारण्य’ भागलपुर जिले में 50 कि.मी. के क्षेत्र में स्थापित किया गया है। इसी क्रम में ‘डॉलफिन’ (सूँस) को ‘राष्ट्रीय जलीय जीव’ भी 5 मई, 2010 में घोषित किया गया। ‘डॉलफिन’ को ‘ताजे पानी का टाईगर’ भी कहा जाता है। इस क्षेत्र में भी घने वन एवं वन्य जीव पाये जाते हैं ।

4. निचला गंगा मैदान –

  • किशनगंज (पूर्णिमा – बिहार ) से सम्पूर्ण पश्चिम बंगाल (ऊपरी पहाड़ी क्षेत्रों को छोड़कर) एवं बांग्लादेश इसके अन्तर्गत आते हैं। इस क्षेत्र में गंगा और उसकी सहायक नदियाँ असंख्य छोटी-छोटी धाराओं में विभाजित हो जाती है। अति मन्द ढाल और कांप मिट्टी की उपस्थिति के कारण डेल्टाई प्रदेश एक अतुलनीय दृश्य प्रस्तुत करता है । इस डेल्टाई भाग का कुल क्षेत्रफल 60,000 वर्ग कि.मी. है जिसके सागरमुखी दलदली क्षेत्र में पाये जाने वाले वन ‘सुन्दरवन’ कहलाते हैं। यह भारत एवं बांग्लादेश दोनों देशों में संरक्षित भाग है। यह क्षेत्र ‘जैवविविधता’ की दृष्टि से विश्व के अग्रणी क्षेत्रों में एक है। यहाँ ‘मैंग्रोव (Mangrove) एवं ‘ज्वारिय प्रकार’ वनस्पति पायी जाती है। यहाँ बड़ी संख्या में ‘सुन्दरी पेड़’ की प्रजाति पाये जाने के कारण ही, इस वन का नाम ‘सुन्दरवन’ रखा गया । यहाँ के पारितंत्र की एक प्रमुख विशेषता यह है कि यहाँ वनस्पति एवं जीव जन्तु मीठे व खारे पानी के मिश्रण में रह सकते हैं। इस विश्व के सबसे बडे डेल्टाई प्रदेश का निरन्तर सागर की तरफ विस्तार हो रहा है। इन वनों में विश्व प्रसिद्ध ‘रॉयल बंगाल टाईगर’ पाये जाते हैं। इनके अतिरिक्त सभी प्रकार के मांसाहारी एवं शाकाहारी जीव-जन्तु, पक्षी आदि सुन्दरवन में पाये जाते हैं। यह क्षेत्र चावल उत्पादन एवं विश्व में सर्वाधिक जूट उत्पादन के लिए विख्यात है । यह क्षेत्र उष्ण कटिबन्धीय चक्रवातों से प्रभावित रहता है, जिससे भारी जन-धन का नुकसान होता है । इस क्षेत्र में गर्म एवं आर्द्र मानसूनी जलवायु पाया जाता है। इसलिए ‘मैंग्रोव’ आर्द्र उष्ण प्रजाति के वन पाये जाते हैं । इन क्षेत्रों में चावल एवं मत्स्य व्यवसाय अधिक होने से ‘चावल – मछली’ यहाँ का प्रमुख आहार है।
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गंगा नदी पर बाँध एवं बैराज

  • गंगा नदी पर बने अनेक बाँध और बैराज भारतीय जनजीवन एवं अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंग है। इनमें सबसे प्रमुख ‘फरक्का बैराज’ (2,240 मीटर लम्बाई, 21 अप्रेल 1975 को शुभारंभ) भारत-बांग्लादेश सीमा पर बना है। इससे सिंचाई, मत्स्यपालन, हुगली में जल (ग्रीष्म ऋतु में) तथा कोलकाता बन्दरगाह को गाद (सिल्ट) से बचाने के लिए बनाया गया था। इसी प्रकार भागीरथी नदी पर टिहरी बाँध’ बहुपरियोजनाओं की आपूर्ति के लिए तैयार किया गया है। इसकी ऊँचाई 261 मीटर है। इससे 2400 मेगावाट विद्युत उत्पादन, 2,70,000 हैक्टर क्षेत्र की सिंचाई और प्रतिदिन 102.20 करोड़ लीटर पेयजल दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड को उपलब्ध कराया जा रहा है । तीसरा बड़ा बाँध हरिद्वार में स्थित ‘भीमगोडा बाँध’ है जिसे अंग्रेजों ने 1940 में बनवाया था । इस बाँध का जल सिंचाई, मत्स्य पालन, पेयजल में उपयोग किया जाता है । इनके अतिरिक्त शारदा, कोसी एवं गण्डक नदियों पर नेपाल सीमा के निकट बैराज बनाये गये हैं। यह विद्युत उत्पादन, सिंचाई व पेयजल के काम आते है । इन बाँधों से बहुत फायदे हुए हैं लेकिन इस क्षेत्र में गाद (सिल्ट ) जमाव की बहुत बड़ी समस्या है जिससे ‘फरक्का बैराज’ सबसे अधिक प्रभावित है ।

गंगा नदी में प्रदूषण

  • गंगा नदी की कुल लम्बाई 2,071 कि.मी. है। इसकी बड़ी संख्या में छोटी-बड़ी सहायक नदियाँ है जो उत्तर से हिमालयी क्षेत्र एवं दक्षिण में प्रायद्वीपीय क्षेत्र से आकर मुख्य नदी में मिलती है। गंगा नदी के दोनों किनारों पर 2500-3000 नगरों का बसाव है जिनमें बड़ी संख्या में सघनता से मनुष्य निवास करता है । दोनों तरफ कृषि एवं पशुपालन के कार्य किये जाते हैं। नगरों में कई प्रकार के उद्योग-धन्धे स्थापित किये गये हैं । रासायनिक, चमड़ा, उर्वरक एवं अन्य उद्योगों से अपशिष्ट पदार्थ तथा नगरों से निकले मलजल, कचरे आदि का गंगा नदी में मिलने से उसमें प्रदूषण बहुत तेजी से बढ़ा है। इस पानी का उपयोग नहाने एवं पीने के लिए भी नहीं किया जा सकता । यह प्रदूषित जल नदी के पारितंत्र को तेजी से खराब कर रहा है। नदी के जल में विलीन आक्सीजन (DO) की मात्रा 6.8-7.2 एमजी / लीटर मापी गई। यह मात्रा बहुत अधिक है। सामान्य रूप में यह मात्रा 4.0 एमजी / लीटर होनी चाहिए। हरिद्वार, इलाहबाद, वाराणसी एवं पटना में सर्वाधिक पायी गई। इसी प्रकार जैव रासायनिक ऑक्सीजन की उपस्थित (BOD) कन्नौज से वाराणसी तक अधिक पायी गई। कानपुर के आस-पास 16.39 एमजी / लीटर, सर्वाधिक रिकार्ड की गई । पर्वतीय क्षेत्रों में ये सबसे कम 3 एमजी / लीटर रिकार्ड की गई । इसी प्रकार पटना के नीचे डेल्टाई प्रदेशों में 15.58 एमजी / लीटर रिकार्ड की गई। डी.ओ. एवं बी.ओ.डी. की मात्रा मानसून पूर्व एवं पश्चात अलग-अलग पायी गई। इसी प्रकार कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद एवं वाराणसी में ‘कॉलीफार्म’ (Coliform ) नदी के जल में सर्वाधिक पाया गया। डीओ, बीओडी एवं कॉलीफार्म की मात्रा अधिक होने के कारण नदी जल में प्रदूषण की मात्रा बढ़ी हुई पायी गई ।
गंगा नदी का पारिस्थितिकी तंत्र

संरक्षण एवं उपाय

  • गंगा एक्शन प्लान प्रथम एवं द्वितीय में नदी के प्रदूषण उपचारण एवं उसकी सफाई तथा शुद्धिकरण प्लान्ट आदि की व्यवस्था की गई है। 1985 से अब तक अरबों रुपये लगाये गये हैं। लेकिन परिणाम अच्छे नहीं प्राप्त हुए हैं। राजनैतिक एवं प्रशासनिक इच्छा शक्ति एवं दूरदर्शिता की कमी पायी गई। इसके अतिरिक्त भ्रष्टाचार देश के सामने बहुत बड़ी समस्या है। गंगा नदी के संरक्षण से नदी ही नहीं, मानव, वनस्पति, जीव-जन्तुओं, पर्यावरण और सर्वोच्च पारितंत्र को सुचारू रूप से चलाने में मदद प्राप्त होगी। डॉलफिन, शार्क, महाशीर मछली, ऐलिगेटर, बंगाल टाईगर, मैंग्रोव एवं ज्वारिय वन आदि को बचाने की आवश्यकता है। गंगा नदी पर विकास के नाम पर बाँधों एवं बैराज का जंजाल खड़ा कर दिया गया है । इसी प्रकार ‘बाढ़ के मैदानों’ में अधिवास बसा दिये गये हैं। वनों की कटाई के कारण मिट्टी अपरदन, लैण्ड स्लाइड, बाढ़ की समस्या तेजी से बढ़ी है। मानव के अस्तित्व के लिए गंगा को संरक्षित करना एवं बचाना अति आवश्यक कार्य है। विश्व तापमान बढ़ने से हिमानी तेजी से पिघल रहे हैं। इससे गंगा और अन्य नदियों के अस्तित्व पर गहरा संकट आ सकता है। गंगा नदी की स्वच्छता की जितनी जिम्मेदारी सरकार की है, उससे कहीं अधिक समाज एवं गंगा प्रवाह क्षेत्र में बसे व्यक्तियों की है । हम गंगा को जब तक मां का सम्मान वास्तव में नहीं देगें, तब तक कोई भी सरकारी तंत्र इसकी पवित्रता को बनाये नहीं रख सकता है।

महाकुम्भ मेला

  • प्रयाग (इलाहाबाद) में गंगा, यमुना एवं सरस्वती नदियों का संगम पर प्रत्येक 12 साल के अन्तराल पर महाकुम्भ का मेला भरता है । जिसमें देश-विदेश से लाखों की संख्या में पर्यटक आते हैं। यह पृथ्वी पर श्रद्धा और विश्वास से ओतप्रोत मानव समुदाय का सबसे बड़ा पड़ाव होता है। इस मेले का धार्मिक एवं आध्यात्मिक महत्व है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस स्थान पर ‘सागर मंथन’ से प्राप्त ‘अमृत’ की बूँदें गिरी थी। ये विशेष खगोल स्थिति में आयोजित किया जाता है। पूर्ण कुम्भ 144 सालों में होता है । यह मान्यता है कि इस महाकुम्भ मेले में स्नान से सभी पापों से मुक्ति मिलती है। 2013-14 संयुक्त राज्य अमेरिका के हावर्ड विश्वविद्यालय ने ‘महाकुम्भ पर्व’ को अपने पाठ्यक्रमों में अध्ययन एवं शोध के लिए सम्मिलित किया है। इस मेले की व्यवस्थाओं के बड़े गुणगान किये गये हैं, तथा शोध दल ने यहाँ की व्यवस्थाएँ ‘फीफा फुटबाल विश्वकप’ से बेहतर बताई है। अगला महाकुम्भ 2025 में आयोजित होगा ।
गंगा नदी का पारिस्थितिकी तंत्र


महत्वपूर्ण बिन्दु —

1. पारितंत्र जैविक एवं अजैविक घटकों का विशेष के रूप में अध्ययन किया जाता है ।
2. गंगा भारत की राष्ट्रीय नदी है। इसमें बढ़ते प्रदूषण के कारण इसका पारितंत्र असन्तुलित हो रहा है । डॉलफिन (सूँस) एवं महशीर मछली प्रजाति के जीवों को बचाना आवश्यक है ।
3. भागलपुर में गंगा नदी पर डॉलफिन संरक्षण के लिए ‘विक्रमशीला डॉलफिन उद्यान’ बनाया गया है। देश में नदी डॉलफिन 2000-2500 तक की संख्या में ही बची है ।
4. गंगा नदी कुँमायु हिमालय से जन्म लेकर ऋषिकेश हरिद्वार में मैदानी भागों में आकर बहती हुई उत्तर प्रदेश, बिहार, प. बिहार एवं बांग्लादेश में प्रवाहित होकर ‘सुन्दरवन डेल्टा’ का निर्माण करती है !




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