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जन्तुओं के आर्थिक महत्व (Economic importance of animals in Hindi)

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जन्तुओं के आर्थिक महत्व (Economic importance of animals)

Economic importance of animals in Hindi

  • प्राचीन काल से ही मानव विभिन्न जन्तुओं को पालतू बनाकर उनका उपयोग भोजन एवं अन्य उपयोगी सामग्री प्राप्त करने के लिए करता आया है नई तकनीकी वि कसित हो जाने के कारण आज इन जन्तुओं की नई किस्मों को पालना अत्यन्त सरल व लाभप्रद हो गया है विभिन्न जन्तुओं जैसे – मधुमक्खी, रेशमकीट, लाख कीट सवंर्धन, मोती या मुक्ता सवंर्धन, प्रवाल एवं प्रवाल मित्तियाँ, मछली, पशु आदि के पालन एवं उनकी उत्तम नस्लों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-​



1. मधुमक्खी पालन (Apiculture)

  • मधुमक्खी पादपों में परागण की क्रिया के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण कीट है इसके पालन से मनुष्य को दोहरा लाभ होता है मधुमक्खी के पालन से परागण की क्रिया आसानी से होने के कारण फसल की पैदावार में बोत्तरी होती है मधुमक्खी से प्राप्त शहद का उपयोग मनुष्य हजारो वर्षों से करता आया है यह उच ऊर्जा युक्त भोज्य पदार्थ होने के साथ-साथ औषधि के रूप में भी उपयोग में लिया जाता है शु शहद. लम्बे समय तक नष्ट नहीं होने के कारण इसे परिरक्षक के रूप में उपयोग किया जाता है​
  • प्राचीन समय से प्रकृति में मिलने वाले के छत्तों से शहद तथा मधुमोम प्राप्त किया जाता रहा है वर्तमान समय में कुत्रिम रूप से छत्तों में मधुमक्खी को पालकर बड़ी मात्रा में शहद प्राप्त किया जा रहा है​

Economic importance of animals in Hindi


2. रेशमकीट पालन (Sericulture)

  • रेशम प्राप्त करने के लिए हजारों वर्षों से हम रेशमकीट का पालन करते आये है रेशम से कपडे बुनने की प्रक्रिया का प्रारम्भ सर्वप्रथम चीन में हुआ वर्तमान में यह भारत सहित विश्व के कई देशों में कुटीर उद्योग बन चुका है​

रेशमकीट का जीवन परिचय​

  • ऐसे कीट जो रेशम जैसा धागा उत्पन्न करते हैं, उन्हें रेशम कीट कहते हैं इनमें से शहतूत की पत्तियों पर Grow करने वाले रेशमकीट की जाति बास्बिक्स मोराई (Bombyx mori) प्रमुख है वर्तमान में चीन व जापान के बाद भारत रेशम उत्पादन के क्षेत्र में तीसरे स्थान पर है यह आर्थोपोडा संघ के इन्सेक्टा वर्ग के लैपीडोप्टेरा गण का सदस्य है यह अछी गुणवत्ता की रेशम का उत्पादन करता है भारत में इसकी एक वर्ष में 2 से 7 तक तैयार कर ली जाती हैं अण्डज उत्पत्ति के बाद अण्डे से लार्वा बाहर आ जाता है यह ‘कैटरपिलर कहलाता है लार्वा में एक जोड़ी लार ग्रन्थियाँ पाई जाती है, जिन्हें रेशम ग्रन्थियाँ कहते हैं​
  • जब ये पूर्ण विकसित हो जाती है तब यह लार्वा की लम्बाई से पाँच गुना अधिक लम्बी हो जाती हैं रेशम का स्त्रवण द्रव के रूप में होता है जो हवा के सम्पर्क में आने पर कठोर हो जाता है​
  • रेशम कीट के पूर्ण विकसित लार्वा की लम्बाई 7.5 सेमी हो जाती है यह भोजन करना बन्द कर देता है, इसके पश्चात कोकून बनाना प्रारम्भ कर देता है अपने चारों ओर रेशम के धागों का स्त्रवण कर स्वयं पूर्णत बन्द हो जाता है कोकून के अन्दर बन्द निष्क्रिय लावा प्यूपा कहलाता है कोकून लगभग 4000—4200 मीटर लम्बे रेशम के धागे का बना होता है​
  • एक कोकून का भार 1.8 से 22 ग्राम होता है रेशम प्रोटीन का बना होता है इसका भीतरी भाग फाइब्रिन का एवं बाहरी भाग सेरीसिन प्रोटीन का बना होता है रेशम कीट पालन हेतु शहतूत के बाग लगाये जाने जरुरी हैं​

Economic importance of animals in Hindi


3. लाख कीट WA (Lac culture)

  • लाख कीटों की लक्ष ग्रन्थियों गरा स्त्रावित रेजिनयुक्त रालदार पदार्थ को लाख कहते हैं लाख के यापारिक उत्पादन हेतु लाख कीटों के पालन को लाख संवर्धन (Lac culture) कहते हैं विश्व में लाख के कूल उत्पादन का 80% भाग भारत में उत्पादित होता है​
  • लाख कीट का वैज्ञानिक नाम लैसीफर लैका (Laccifer lacca) है ये छोटे आकार के रेंगने वाले शल्कीय कीट हैं जो स्वयं गरा स्त्रावित लाख से बने आवरण में बन्द रहता है यह आवरण इसे सुरक्षित रखता है नर लाख कीट मादा से आकार में छोटे तथा गुलाबी रंग के होते हैं ये केवल निम्फावस्था में ही लाख उत्पन्न करते हैं मादा लाख कीट आकार में बड़ी होती है तथा अधिक लाख उत्पन्न करती है ये मुलायम शाखाओं से चिपक कर रस चूसना प्रारम्भ करती हैं तथा अपने शरीर के चारों ओर लाख बनाना प्रारम्भ कर देती हैं, देश में प्रतिवर्ष इसकी चार फसतलें प्राप्त होती है भारत में लाख उत्पादन का 50% भाग रंगीनी फसल से प्राप्त किया जाता है​

लाख उत्पादन के लिए निम्न दो विधियाँ प्रचलित हैं-

(i) पुरानी देशी विधि
(ii) आधुनिक विधि

(i) पुरानी देशी विधि – आदिवासियों गरा उपयोग में ली जाने वाली यह विधि बहुत प्राचीन तथा अवैज्ञानिक हैं इसमें लाख के पौधे को काटकर ही लाख एकत्रित की जाती है कीट नष्ट हो जाने के कारण इस विधि से आगामी फसल को भारी हानि होती है
(ii) आधुनिक विधि – यह एक वैज्ञानिक विधि है जिसमे आगामी फसल की ज्यादा हानि नहीं होती है क्योंकि लाख एक साथ न निकालकर बारी-बारी से निकाली जाती है इसका अनुसंधान भारतीय लाख अनुसंधान केन्द्र रांची, बिहार (indian lac research institute, Ranchi, Bihar) में किया जाता है​

जन्तुओं के आर्थिक महत्व


4. मछलीपालन (Fishery)

  • मछली एक आसानी से प्राप्त होने वाली प्रोटीनयुक्त, उच पोषक युक्त एवं आसानी से पचने वाला भोज्य स्त्रोत है अत मछली पालन हेतु मानव द्वारा तालाबों में मछलियों का प्रजनन एवं उत्पादन किया जाता है वर्तमान में भारत का विश्व में समुद्रीय भोज्य उत्पादन की दृष्टि से छठा स्थान है पश्चिम बंगाल, बिहार व उडीसा में लगभग 4500 वर्ष पुराना मछली उद्योग है​
  • मछलियों का उत्पादन खारे जल की तुलना में मीठें जल में अधिक होता है अलवणीय (मीठा) जल में मछली पालन के लिए रोह्दू (Labeo rohita), कतला (Catla), मृगल (Cirrhinus mrigala) आदि देशी मछलियों का उत्पादन किया जाता है कुछ उद्योगों में विदेशी मछलियों जैसे – कामन कार्प (Cyprinus carpio) का उत्पादन भी किया जाने लगा है जलाशय निर्माण की दृष्टि से चिकनी मिटटी वाले स्थान को जलाशय निर्माण की दृष्टि से अछा माना जाता है इस जलाशय का तापमान, प्रकाश, आक्सीजन, जल प्रवाह आदि नियंत्रित करके मछलियों का अधिक उत्पादन किया जा रहा है प्राकृतिक भोजन जैसे – सुक्ष्मजलीय पादप व जन्तु एवं कृत्रिम जैसे – चावल की भूसी, गेहूँ की चापड़, अनाज के टुकड़े आदि का भोजन दिया जाता है​

जन्तुओं के आर्थिक महत्व


5. पशुपालन (Animal Husbandry)

  • कृषि विज्ञान की वह शाखा जिसके अन्तर्गत पालतू पशुओं के भोजन, आवास, स्वास्थ्य, प्रजनन आदि का अध्ययन किया जाता है उसे पशुपालन (Animal husbandry) कहते हैं​
  • भारतीय अर्थयवस्था में पशुपालन का विशेष महत्त्व है, उसमें से दुग्ध उत्पादन का सर्वाधिक योगदान है​
  • भारत में विश्व की कुल संख्या का 55 प्रतिशत भैसें एवं 15 प्रतिशत गायें हैं देश के कूल दुग्ध उत्पादन का 53 प्रतिशत भैसें व 43 प्रतिशत गायों से प्राप्त होता है दुग्ध उत्पादन की दृष्टि से भारत विश्व में प्रथम स्थान पर है विश्व में हमारा स्थान बकरियों की संख्या में दूसरा, भेड़ों की संख्या में तीसरा एवं कुक्कूट संख्या में सातवाँ स्थान है ये छोटे पशु गरीबों के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं​

जन्तुओं के आर्थिक महत्व


डेयरी उद्योग (Dairy Industry)​

  • मानव ने प्राचीन काल से ही कुछ पशुओं को पालतू कर उनके दूध का अपने पोषण हेतु उपयोग करता रहा है वर्तमान में दुग्ध उत्पादन डेयरी उद्योग का एक प्रमुख व लाभकारी यवसाय बन गया है दुग्ध उत्पादन की दृष्टि से भैंस अधिक महत्वपूर्ण मानी जाती है भैंस की कुछ अछी नस्लें इस प्रकार हैं जैसे – जाफराबादी, मुर्र, सूखी, भदावरी, मेहसाना आदि इसी प्रकार गाय की कुछ अछी नस्लें इस प्रकार हैं जैसे – गिर, साहिवाल, देवकी, हरियाणा आदि कुछ राज्यों में बकरी का पालन भी दुग्ध उत्पादन के लिए किया जाता है, सिरोही, बारबरी, कश्मीरी पश्मीना, जमनापरी आदि बकरी की अछी नस्लें हैं​

कुक्कुट पालन या मुर्गीपालन (Poultry)​

  • अण्डे व माँस (चिकन) खाने के लिए आदिकाल से ही मुर्गीपालन की परम्परा रही है यह उद्योग भोज्य पदार्थ के रूप में प्रोटीन आवश्यकता के एक बडे अंश की पूर्ति करता है विश्व में अण्डा उत्पादन की दृष्टि से भारत का पाँचवा स्थान है मुर्गियों की अछी एवं स्वस्थ्य रखने के लिए उन्हें सुरक्षित आवास तथा पौष्टिक भोजन आवश्यक है उनके भोजन में मक्का, जौ, बाजरा, गेहूँ, ज्वार आदि सम्मिलित किए जाते हैं​

ऊन उद्योग (Wool Industry)​

  • उत्तरी भारत में ऊन प्राप्त करने के लिए बड़ी संख्या में भेड पाली जाती हैं भेड़ के बालों से ऊन तैयार की जाती है ऊन का रंग भेड की प्रजाति तथा उस क्षेत्र की जलवायु पर निर्भर करता है भेड़ की कुछ देशी नस्लें जैसे – लोही, नली, मारवाडी, पाटनवाडी आदि पाली जाती है ऊन उत्पादन के दृष्टि से राजस्थान देश का एक महत्वपूर्ण राज्य है​

6. प्रवाल एवं प्रवाल भित्तियाँ (Corel and corel reefs)

  • एकल या निवही पालिप जन्तु जो सीलेन्टेटा संघ के हैं, कैल्शियम कार्बोनेट (CaCO3 ) का बना बा कंकाल स्त्रावित करते हैं, जिसे कोरल या प्रवाल (Corel) कहते हैं अधिकाँश कोरल एन्थोजोआ (Anthozoa) वर्ग के जीवों गरा स्त्रावित किये जाते हैं​
  • प्रवाल निवह के पालिपों के लगातार मुकुलन से समुद्र में चूनेदार चटटानों या कवच के बने टीले के समान रचनायें बनती हैं, जिसे प्रवाल भित्तियाँ (Corel reefs) कहते हैं​

जन्तुओं के आर्थिक महत्व


7. मोती या मुक्ता संवर्धन (Pearl culture)

  • मोलस्का संघ के जन्तु आर्थिक रूप से मानव के लिए अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है बटन, मोती तथा कौड़ी प्राप्त होने के कारण ये यापारिक दृष्टिकोण से उपयोगी हैं प्राचीन काल से ही मोती रत्नों तथा मणियों के रूप में मूल्यवान समे जाते रहे हैं इस कार्य के लिए मोलस्का के हजारों टन कवच प्रतिवर्ष उपयोग में लाये जाते हैं मुक्त सूक्तियों (Pearl oyster) से अति सुन्दर, | आकर्षक तथा मूल्यवान मोती मिलते हैं​
  • कृत्रिम तकनीक के माध्यम से सीपियों को पालकर उनसे मुक्ता या मोती बनाकर प्राप्त करना मुक््ता या मोती संवर्धन (Pearl culture) कहलाता है मोती को एक मूल्यवान रत्न माना जाता है जो प्राय सफेद, चमकीली, गोलाकार संरचना होती है जिसे आयस्टर (Oyster) जैसे मोलस्क अपने कवच के नीचे स्वयं की रक्षा के लिए स्त्रावित करते हैं​
  • यह तकनीक सर्वप्रथम जापान में विकसित की गई थी समुद्री आयस्टर से प्राप्त किये जाने वाले लिंघा मोती (Lingha pearl) सबसे उत्तम माने जाते है स्वछ जल में पाये जाने वाले सीपियों से प्राप्त मोती कम मूल्यवान होते है​

जन्तुओं के आर्थिक महत्व


जन्तुओं के अन्य महत्व (Other uses of animals)


मधु या शहद, मोम, रेशम व लाख आदि के अतिरिक्त जन्तुओं के अन्य उपयोग इस प्रकार है-

  1. रंग (Colour)- कुछ शल्क कीट जो कैक्टस पर रहते हैं, उनके सूखे शरीर से टैनिन (Tanin) और कोकीनोल (Cochinol) रंग प्राप्त किये जाते है, जिनका उपयोग सौन्दर्य-प्रसाधनों में किया जाता है​
  2. अपमार्जक (Scavenger) – कुछ कीटों गरा मृत पादपों व जन्तुओं के शरीर को खाने के कारण उन्हें सड़ने व दुर्गन्ध फैलने से रोकते हैं अर्थात अपमार्जक का कार्य करते है जैसे – दीमक, तिलचटटा आदि​
  3. औषधीय महत्व (Medicinal use) – कुछ कीटों जैसे — ब्लिस्टर (Blister beetles) से कैन्थाराइडीन औषधी प्राप्त की जाती है इसका उपयोग बालों को ड़ने से रोकने के लिए किया जाता है मधुमक्खियों से प्राप्त मधु का उपयोग अल्सर को ठीक करने के लिए किया जाता है कोचीनील कीटों से प्राप्त कार्मिनिल अम्ल का उपयोग कुक्कर खाँसी तथा चेहरे व सिर की तन्त्रिका पीड़ा को ठीक करने के लिए किया जाता है​
  4. भोजन के रूप में (As a food) – माँसाहारी मनुष्य मेक, छिपकलियों, साँप, मछलियों आदि को भोजन के रूप में काम में लेते है​
  5. पादपों में परागण (Pllination in plants) – पुष्पी पादपों में निषेचन के लिए परागण की क्रिया का होना अत्यन्त आवश्यक है कई कीट जैसे – तितली, चींटी, मधुमक्खी, मक््खी, T आदि एक पुष्प से दूसरे पुष्प में जाकर परागण की क्रिया को सम्पन्न करते है​


अपशिष्ट एवं इसका प्रबंधन FAQ –


प्रश्न 1. जैव चिकित्सकीय अपशिष्ट के निस्तारण हेतु कौनसी तकनीक उपयुक्त है–
(क) भूमि भराव
(ख) भस्मीकरण
(ग)
(घ) जल में निस्तारण

उत्तर ⇒ { (ख) भस्मीकरण }

प्रश्न 2. पुनर्चक्रण किस प्रकार के अपशिष्ट हेतु उत्तम उपचार है
(क) धात्विक अपशिष्ट
(ख) चिकित्सकीय अपशिष्ट
(ग) कृषि अपशिष्ट
(घ) घरेलू अपशिष्ट

उत्तर ⇒ { (क) धात्विक अपशिष्ट }

प्रश्न 3. निम्न में से प्रमुख ग्रीन हाउस गैस है
(क) हाइड्रोजन
(ख) कार्बन मोनो ऑक्साइड
(ग) कार्बन डाई ऑक्साइड
(घ) सल्फर डाई ऑक्साइड

उत्तर ⇒ { (ग) कार्बन डाई ऑक्साइड }

प्रश्न 4. भारत के बड़े नगरों में प्रति व्यक्ति औसत कूड़ा निकलता है
(क) 1-2 किग्रा
(ख) 1 से 2 किग्रा.
(ग) 2-4 किग्रा.
(घ) 4 से 6 किग्रा.

उत्तर ⇒ { (घ) 4 से 6 किग्रा. }

प्रश्न 5. जैविक खाद बनाई जा सकती है
(क) घरेलू कचरे से
(ख) कृषि अपशिष्ट से
(ग) दोनों से
(घ) कोई नहीं

उत्तर ⇒ ???????

प्रश्न 1. बायोगैस कैसे बनाई जाती है?
उत्तर- ग्रामीण क्षेत्रों में घरेलू उपयोग के लिए अपशिष्टों, जीव-जन्तुओं के उत्सर्जी पदार्थों, जैसे-गोबर और मानव मलमूत्र के उपयोग से बायोगैस बनाई जाती है।

प्रश्न 2. क्या है?
उत्तर- किसी भी प्रक्रम के अन्त में बनने वाले अनुपयोगी पदार्थ या उत्पाद अपशिष्ट कहलाते हैं।

प्रश्न 3. ग्रीन हाउस गैसों के नाम लिखें।
उत्तर- कार्बन डाईऑक्साइड, जलवाष्प, मैथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, क्लोरोफ्लोरो कार्बन आदि ग्रीन हाउस गैसें हैं।

प्रश्न 4. वर्मी कम्पोस्ट किसे कहते हैं ?
उत्तर- कृषि सम्बन्धी कूड़ा-कचरा, सब्जियों के शेष भाग, पशु मल-मूत्र, गोबर आदि का ढेर कर उन पर केंचुए छोड़ दिये जाते हैं। ये केंचुए इन पदार्थों को खाने के बाद जो मल त्यागते हैं यही जैविक खाद या वर्मी कम्पोस्ट कहलाती है।

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