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जल निकाय – परिभाषा और प्रकार (Water Bodies and Types of Water bodies in Hindi)

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Water Bodies and Types of Water bodies in Hindi

जलराशियों (Water Bodies):

  • सम्पूर्ण पृथ्वी का क्षेत्रफल 50.995 करोड़ वर्ग किमी. है, जिसमें से 36.106 करोड़ वर्ग किमी. क्षेत्रफल पर और 14.889 करोड़ वर्ग किमी. क्षेत्रफल पर स्थलमण्डल विस्तृत है। जलमण्डल और स्थलमण्डल के विस्तार के सम्बन्ध में सर्वप्रथम डॉ. लोंग (Dr. Long) ने सन् 1742 में पृथ्वी पर स्थल और जल का अनुपात 1:2.81 अर्थात् 26 प्रतिशत और 74 प्रतिशत बताया, जबकि वेगनर (Wegener) ने स्थल का विस्तार सम्पूर्ण पृथ्वी के 28.3 प्रतिशत और जल का विस्तार 71.7 प्रतिशत माना । वैज्ञानिकों द्वारा नवीन यंत्रों की सहायता से ध्रुवीय क्षेत्रों में किये गये अन्वेषणों के आधार पर स्थल और जल का अनुपात 1:2.43 अर्थात 29.2 प्रतिशत और 70.8 प्रतिशत निर्धारित किया गया है । इन अन्वेषणों से यह भी ज्ञात हुआ है कि समस्त जलमण्डल का 43 प्रतिशत जल उत्तरी गोलार्द्ध और 57 प्रतिशत जल दक्षिणीं गोलार्द्ध में स्थित है ।

स्थल और जल के वितरण को अधिक स्पष्ट करने के लिए यदि हम पृथ्वी पर दो काल्पनिक गोलाद्धों की रचना करें, तो स्थिति इस प्रकार होगी —

  1. स्थलमण्डल को दर्शाने के लिए यदि फ्रांस के तट पर लॉयर नदी के मुहाने को केन्द्र तथा इस केन्द्र से सिंगापुर तक की दूरी को अर्द्धव्यास मानते हुए एक काल्पनिक गोलार्द्ध की रचना करें, तो इस गोलार्द्ध के 47.3 प्रतिशत भाग पर स्थल और 52.7 प्रतिशत भाग पर जल का विस्तार मिलेगा ।
  2. जलमण्डल को दर्शाने के लिए यदि न्यूजीलैण्ड के दक्षिणी पूर्वी भाग को केन्द्र और इस केन्द्र से सुमात्रा के उत्तरी-पूर्वी तट तक अर्द्धव्यास लेते हुए एक काल्पनिक गोलार्द्ध की रचना करें तो इस गोलार्द्ध के 90.5 प्रतिशत भाग पर जल और केवल 9.5 प्रतिशत भाग पर स्थल का विस्तार मिलेगा ।

इसी प्रकार ग्लोब को ध्यान से देखने पर जल और स्थल के वितरण में निम्न दो विशेषताएँ स्पष्ट दृष्टिगोचर होती हैं –

  1. जल और स्थल भाग एक दूसरे के विपरीत स्थित हैं, जैसे प्रशान्त महासागर के विपरीत अफ्रीका का स्थल भाग, हिन्द महासागर के विपरीत अमेरिका का स्थल भाग और महासागर के विपरीत अन्टार्कटिका का स्थल भाग स्थित है।
  2. महाद्वीपों और महासागरों का आकार लगभग त्रिभुजाकार है । महासागरों का आधार दक्षिणी गोलार्द्ध में तथा शीर्ष उत्तर में है, वहीं महाद्वीपों का आधार उत्तर में और दक्षिण की ओर है ।

विश्व की जलराशियों के अन्तर्गत विशाल महासागरों (प्रशान्त, अटलांटिक, हिन्द और आर्कटिक ) के अतिरिक्त परावृत समुद्र जैसे भूमध्यसागर, लालसागर आदि, महाद्वीपों के स्थित खाड़ियाँ जैसे मन्नार की खाड़ी, बेफिन खाड़ी आदि और महाद्वीपों पर स्थित सागर व झीलें जैसे कैस्पियन सागर, वृहत झीलें, मृत सागर आदि सम्मिलित हैं। इन सभी का क्षेत्रफल एवम् जलराशि के आयतन को निम्न सारणी में दर्शाया गया है ।


  • जिस प्रकार ऋतु विज्ञान में वायु राशियों का अध्ययन महत्वपूर्ण स्थान रखता है, ठीक उसी प्रकार समुद्र विज्ञान में जलराशियों का विशिष्ट स्थान है। मध्य एवं निम्न अक्षांशीय क्षेत्रों में क्षैतिजिक दिशा के विपरीत लम्बवत् दिशा में प्रवाहित जलराशियाँ विस्तृत क्षेत्रों में चलती है। गहराई के अनुसार लम्बवत् रूप में जल का घनत्व बढ़ जाता है तथा ध्रुवीय क्षेत्रों में लम्बवत् दिशा की अपेक्षा क्षैतिजिक रूप से जलराशियाँ चला करती है ।
  • घनत्व के आधार पर विभिन्न जलराशियों के स्वभाव में अन्तर स्पष्ट किया जा सकता है। हेलैंड हेंसन के अनुसार समान तापमान और लवणता के जल में समान घनत्व का होना आवश्यक नहीं है । दूसरे शब्दों में भिन्न तापमान और लवणता की जलराशियों का घनत्व समान भी हो सकता है ।
  • विभिन्न जलराशियों के स्वभाव का ज्ञान तथा उनका सीमांकन तापमान और लवणता का निरीक्षण करके किया जा सकता है । जिस प्रकार वायु मण्डल में परतें स्थित है उसी प्रकार महासागरों में भी परतें पाई जाती है । विषुवत रेखा के निकट मध्य अक्षांशों में सागर की सतह पर अधिक तापमान, कम लवणता एवं कम घनत्व की परत होती है जिसमें तीव्र गति वाली धाराऐं पाई जाती है। इसके नीचे अपेक्षाकृत अधिक घनत्व की परत होती है । अन्त में तली में तीसरी परत होती है, जिसका घनत्व सबसे अधिक होता है।

जलराशियों की संरचना में निम्न कारकों का प्रभाव पड़ता है।

(1) अक्षांशीय दूरी
(2) वर्षा अथवा हिम से स्वच्छ जल की प्राप्ति
(3) स्थायी पवनों की दिशा
(4) जल का डूबना या अपसरण
(5) समुद्री धारायें
(6) महासागरीय भँवर आदि ।

जलराशियों का वितरण :

  • अधिकांश विद्वानों द्वारा तापमान और लवणता को ही आधार मानकर जलराशियों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। एक जलराशि में यह आवश्यक है कि उसके अधिक से अधिक भाग में तापमान और लवणता की समानता पाई जाये । विभिन्न सागरीय क्षेत्रों में एक समान तापक्रम लवण एवं घनत्व वाली जलराशियाँ प्रवाहित होती है परन्तु प्रशान्त महासागर एवं अटलांटिक महासागर की जलराशियों में काफी विभिन्नता रहती है। अटलांटिक महासागर में भूमध्यरेखीय जलराशि नहीं मिलती है । उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका के पश्चिमी भागों में भूमध्यरेखीय प्रशान्त जलराशि का विस्तार अधिक मात्रा में रहता है। इसी प्रकार उत्तरी प्रशान्त महासागर एवं उत्तरी एटलांटिक महासागर की केन्द्रीय जलराशि में काफी अन्तर है ।

महासागरों में निम्न जलराशियाँ मुख्य रूप से प्रवाहित होती है जिनका विश्व वितरण निम्न प्रकार से है-

  1. अन्टार्कटिक तलीय जल राशि – यह जलराशि अन्टार्कटिक महाद्वीप के निकट हिन्द एवं अन्ध महासागर के दक्षिण में पाई जाती है। महाद्वीपीय स्तर के समीप जल के द्रवणांक के कारण लवणता की मात्रा बढ़ती जाती है। इस भाग में जल की लवणता 34.62 रहती है तथा तापमान –1.9°c एवं घनत्व 27.89 होता है । हिमांक प्राप्त कर लेने से इस जल का घनत्व बढ़ जाता है तथा वह तली में बैठ जाता है क्योंकि समीपवर्ती सागर का जल अपेक्षाकृत उष्ण होता है जिसमें लवणता 34.68, तापमान 0.5 °C तथा घनत्व 27.84 होता है। यह एक विशिष्ट प्रकार का जल है जो तली में फैलकर तथा मिश्रण द्वारा वह एक विशिष्ट जल राशि का रूप धारण कर लेता है।
  2. उत्तरी अटलांटिक तटीय जलराशि – यह जलराशि लेब्रोडोर सागर तथा आइसलैंड व दक्षिणी ग्रीनलैंड के मध्य पाई जाती है। यहाँ पर उत्तरी अटलांटिक सागरीय प्रवाह का उष्ण एवं लवण युक्त जल पूर्वी ग्रीनलैंड धारा के सम्पर्क में आकर ठण्डा हो जाता है और उसका घनत्व बढ़ जाता है । इस जल का अभिसरण 1,000 मीटर से भी अधिक गहराई में होता है । उस समय इसका घनत्व 27.88, लवणता 34.90 तथा तापमान 2.8°c से 3.3 °c के मध्य होता है ।
  3. अन्टार्कटिक मध्यवर्ती जलराशि – यह अन्टार्कटिक झुकाव क्षेत्र के कारण उत्पन्न होता है। इसकी उत्पत्ति अन्टार्कटिक महाद्वीप के चारों ओर है। उत्पत्ति वास्तविक कारण रूप से विदित नहीं हो सका परन्तु इतना अवश्य है कि इसकी लवणता 33.8, तापमान 2.2°c तथा घनत्व 27.0 सभी स्थानों पर समान होता है तथा नीव पछुआ पवनों की पेटी इसका प्रभाव क्षेत्र है ।
  4. उत्तरी प्रशान्त मध्यवर्ती जलराशि – यह उत्तरी प्रशान्त महासागर में उत्तर पूर्व की ओर 40° उत्तरी अक्षांश के निकट उत्पन्न होती है। इसके जल में ऑक्सीजन की कमी आँकी गई है । दक्षिणी तथा पश्चिमी दिशा में प्रसार के कारण अघःस्थल पर अन्य प्रकार का जल भी सम्मिलित हो जाती है । यही कारण है कि इस जलराशि का गुण अभिसरित होते हुए भी वैसा नहीं होता जैसा कि उसे होना चाहिए |
  5. केन्द्रवर्ती जलराशियाँ – ये जलराशियाँ शीतकालीन उपोष्ण अभिसरण के क्षेत्रों में 35° से 42° उत्तरी व दक्षिणी अक्षांशों को मध्य उपस्थित मिलती है । इन जलराशियों में सतह पर तापमान व लवणता की मात्रा ऊँचे अक्षांशों की दिशा में घटती जाती है, किन्तु घनत्व बढ़ता जाता है । इन जलराशियों की मोटाई अधिक नहीं होती। इनकी अधिकतम गहराई 900 मीटर सारगोसा सागर में मिलती है । प्रशान्त, हिन्द तथा अटलांटिक महासागरों में उपस्थित इस जलराशि का तापमान व लवणता का संबंध एक समान नहीं है। इन जलराशियों में तापमान -0.8°c से – 1.2°c तथा लवणता की मात्रा 34.89 से 34.92 प्रतिशत तक होती है ।
  6. भूमध्यरेखीय जलराशि – यह जलराशि प्रशान्त एवं हिन्द महासागर में भूमध्य रेखा के सहारे स्थित है। अटलांटिक महासागर की विशेष आकृति के कारण यह जलराशि इस सागर में बिल्कुल नहीं पाई जाती । यहाँ पर जल अधिक उष्ण पाया जाता है और जलराशि की मोटाई 100 से 200 मीटर के मध्य होती है। ऋतु परिवर्तन के साथ जल का तापमान व लवणता बदल जाते हैं ।

महत्त्वपूर्ण बिन्दु –

  1. जलमण्डल का कुल क्षेत्रफल 36, 106 करोड़ वर्ग किमी और स्थलमण्डल का कुल क्षेत्रफल 14,889 करोड़ वर्ग किमी है, जो सम्पूर्ण धरातल का क्रमशः 70.8 प्रतिशत और 29.2 प्रतिशत है।
  2. समस्त जलमण्डल का 43 प्रतिशत भाग उत्तरी गोलार्द्ध में और 57 प्रतिशत भाग दक्षिणी गोलार्द्ध में स्थित है ।
  3. जल और स्थल के वितरण की स्थिति को 2 गोलार्द्धा द्वारा स्पष्ट किया गया है।
  4. जलीय चक्र प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से सूर्य से जुड़ा है। इसके फलस्वरूप पृथ्वी को हमेशा स्वच्छ जल प्राप्त होता रहता है। इसमें वाष्पीकरण एवं संघनन की प्रमुख भूमिका होती है ।

जल निकाय FAQ –


जलीय चक्र (Hydrological cycle ) क्या है ?

  • वायुमंडलीय आर्द्रता का निरंतर आदान प्रदान होता रहता क्योंकि वाष्पीकरण और वाष्पोत्सर्जन की क्रियाएं जल को वाष्प में एवं संघनन की क्रियाएं वाष्प को जल में बदलती रहती है। जल वाष्प के इस आदान प्रदान को जलीय चक्र कहते हैं।

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